"काश ! तुम मेरे होते"( मौन का मौन से संवाद है हो रहा )

गुम मौन हो मैं मौन से थी कह रही
क्या है मेरी पहचान ये मौन में ही थी ढूंढ रही
पीहर की खुशियों में पली बढ़ी,
मैं सोचती रही बहुत देर तक।

मौन का मौन से हो रहा संवाद था
क्या पाया मैने ससुराल से
ये मन में उठ रहा उदगार था
जिसे पाने की थी चाह मुझे
मुझे वो ही खुदा मिला नहीं ।

तुम्हें लगता है मेरे हो तुम
पर मेरे नहीं हो तुम
सुबह -शाम पर मेरे है बस कब्जा तेरा
पर मेरे प्यार में एक सम्मान की
झलकियाँ भी नहीं दे सके तुम
इस लिए हो बस मेरे ख्वाब में पर मेरे नहीं हो तुम।

जिस पर खुदा की ही रहमत ना हो
वो किसी से मुहब्बत मांगता है क्या
कर रहा होता है सब पर उम्मीद हारता क्या
सोचते हैं किएक दिन उजाला आयेगा जीवन में
कहे जब भी तुम्हारा दिल उजाला बन के आजाना
कभी उगता हुआ सूरज इजाजत मांगता है क्या ।

तुम रखना अपना फिर जिस्म उतार के
मैं भी खोल के फिर दिल रखूं
हर बात की बात हो जाए फिर
ना रहे मलाल बाद में कि साथ तेरे था मगर
मैने ये कहा नहीं, तुमने ये सुना नहीं ।

जब बना है रिश्ता मंगलसूत्र के गांठ का
सजी है मांग तेरे नाम की
तो डर तुम्हें किस बात की
ये पहाड़ खाक पहाड़ है
ये अजाब खाक अजाब हैं
हो मुहब्बत का जूनन जिसे
वो मुश्किलों से कभी डरा नहीं।

-प्रीति कुमारी




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