अनजान से शहर में

अनजान से शहर में गुमनाम सा परिंदा हूँ
ना घर हैं , ना ही कोई आसरा
भटकता हुआ, हारा हुआ
खुद से ही हूँ मैं लड़ रहा।


ठीकाना जो अपना है
वहाँ अपनापन नहीं लगता
कई लोग हैं अपने कहने को
पर हरपल अपनेपन को ही तरशता हूँ ।

अकेले ही विचरता हूँ
अकेला हर दर्द सहता हूँ
कोई पूछता तक ख़ैरियत नहीं
अपनो की भीर में अक्सर
अपनो की ही कमी हरपल महसूस करता हूँ ।

जो साथ है 'वो है' स्वार्थ से
हम हैं वक्त से लाचार से
कुछ मिल रहा तो कुछ खो रहा
ये करवा ही है चल रहा ।

अनजान से शहर में 
गुमनाम सा मैं भटक रहा 
पहचान की तलाश में 
हूँ आज को भी मैं मचल रहा।

उम्मीद कल के उजाले की लिए
कई स्वपन मन में पाले हुए
अपनो की भरी भीर में 
मैं खुद अपने को हूँ तलाश रहा।

            प्रीति कुमारी 



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