कई भ्रम से मुँह मोड़कर
नींद की झूठी चादर को
तन मन के मैल से धोकर।
झकझोर कर कुछ झूठ को
सच के कड़वे खूंट को पी
अभी -अभी तो संभला हूँ
झूठे स्वपन के सपनो से मैं।
भ्रम जानकर पाला था हमने
कुछ अलग ही उसमें भी
सूकून था, कई दर्द था
उस राह में पर उस
रास्ता पर बड़ा सुकून था।
कभी खुद को तब्बजो दी नहीं
मन की चाह को जाना नहीं
किस रास्ते हैं जा रहे
कभी इस विषय पर सोचा ही नहीं।
जब सोच ली इस बात पर
फिर बात ही बदल गई
जो भ्रम था मेरे जहन में
वो पल भर में ही निकल गई
झकझोर कर कुछ झूठ को
अभी- अभी तो जगा हूँ मैं ।
प्रीति कुमारी
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