चाहतो की मंजरो से

रफ्ता रफ्ता वो दिल से उतर रहे हैं
चाहतो की मंजरो से गिर और संभल रहे हैं
हमने उनसे पूछना ही छोड़ दिया
हम कौन थे तेरे, कौन है ,और क्या हो गए हैं ।


ख़ैरियत पूछने को अब बात करते हैं
उस पहल की भी हम ही शुरुआत करते हैं
वक्त कितना भी गुजर जाए तन्हा
पर एक पल भी ना वो हमे याद करते हैं ।

हर बात जुबा से कही जाए जरूरी तो नहीं
कुछ समझ में ना आए कही मजबूरी तो नहीं
मन भटकता रहे उसके यादों में
पर उसे भूला दे इतना जल्दी
उसकी इश्क़ की तरह मेरा इश्क़
मतलबी और फरेबी तो नहीं ।

जो भूल जाए पल में
कोई कोशिश ही ना करे संभालने की
यकीनन उसका इश्क़ तो कच्चा ही था
खामखा हम बेचैन थे सोच कर सच्ची मुहब्बत है
वरना मुहब्बत तो बहुत दूर की बात
दोस्ती तक भी ना उसकी तरफ से सच्चा था।

जिस इश्क़ को हम इबादत समझ रहे थे
वो उनके मन बहलाने का तरीका था
जिसे हम खुदा बना बैठे थे
वो तो एक खुदगर्ज सा परिंदा था
मतलबी सी दुनिया का
एक मतलबी सा बन्दा था।

प्रीति कुमारी




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