इन्ही उलझन में ये दिन से रात करती है ।
बेजुबा शब्द एक निगााह तलासती हैं
समझे जो शब्दों की खामोशी वो शख्स तलासती है ।
टटोलती है जह्नो को और शांत हो जाती है
तूफान जो है अंदर उसे अंदर ही मारती है ।
खामोशी लब्जो के मायने तोलती हैं
उनकी जरूरत को बारीकी से टटोलती हैं ।
ऐसा क्या है जिसे शब्दों की जरूरत पड़े
क्या कोई नही जहा में जो खामोशी को पढ़े?
क्या मुहब्बत शब्दों से ज्यादा
आँखो में नहीं झलकती
क्या दिल से निकली बात सीधे
दिल तक नहीं पहुंचती।
लब्जो से ज्यादा दर्द तो पलको पर दिखता है
जुबा नहीं होती आंसूओ की फिर भी दर्द बया करता हैं ।
खामोशी ने भी मुस्कुरा कर कह दिया
मैने आज इन लबों को भी खामोश कर दिया।
प्रीति कुमारी
1 टिप्पणियाँ
Super❤
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