नारी सीसक मौन है

गुण, धर्म, ग्यान, सब
यू ही शर्मसार हैं
एक व्यथा जो है नारी की
वो मौन से साकार है ।


हर मोड़ पर है रूकावटे
बंधनो की बेड़ियां परी
जो उठ गई ये बेड़ियां
क्लेष हैं फिर हर धड़ी।

समझ सके जो मैान को
ऐसी कोई जहा नही
जो लड़ रही नारी सदा
अपने सम्मान और आजादी को।

अड़चने,कई भेदभाव है
सब रास्तों में झुकाव है
सब लोग किन्चित है खड़े
चुप देख दर्द के सैलाब को ।

मौन है मन में लिए
कई सवाल है जह्नो में पले
कई बंधनो की बेड़ियो में 
खुद को जकड़े हुए
नारी सिसक मौन है ।

प्रीति कुमारी


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