कभी-कभी अकेलापन खलती है

अकेलेपन की आदत सी है
पर फिर भी कभी- कभी
बहुत अकेला महसूस करती हूं
ये शहर अब नया तो नहीं मेरे लिए
फिर भी यहां अपनापन महसूस नहीं करती हूं।


कुछ ताल मेल नहीं बनता है
होते हैं कई लोग पास पर
अपना ना सबसे नहीं जमता है।

जो खुले विचार के हो मिलते नहीं
‌और जो मिलते हैं सबकी
यारी है मतलब की
इसलिए जमते नहीं।

हर रास्ते की ‌कही ना कहीं
मंजिल ‌होती है
और ‌बेमतलब ही ‌कोई‌ मिल जाए
ऐसी‌ ‌किसमत‌ हर ‌किसी कि नहीं होती है।

हां कभी-कभी‌ अकेलापन खलती है
पर जब अपनी नहीं तो,रब की चलती है
बस ‌सोच कर यही खुद को ‌सब्र देती हूं
जो होना ‌है‌‌ होकर ‌रहेगा और
जो अपना नहीं है ‌वो‌ बेसक‌‌ खोकर रहेगा।

प्रीति ‌कुमारी




एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ