"डालडा: एक दौर का बादशाह, आज एक भूली हुई याद"**

*"डालडा: एक दौर का बादशाह, आज एक भूली हुई याद"**

कभी किसी भी भारतीय रसोई में झाँक लीजिए — अगर वो रसोई 70, 80 या 90 के दशक की है — तो एक चीज़ ज़रूर मिलती थी: एक पीली टिन की डिब्बी, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा होता था **‘Dalda’**. यह सिर्फ एक नाम नहीं था, बल्कि एक **भरोसा** था। रोटियों से लेकर पूड़ियों तक, हलवे से लेकर पराठों तक — डालडा हर खाने का स्वाद और सुगंध बढ़ाने वाला साथी हुआ करता था।


लेकिन आज अगर आप किसी युवा से पूछें "डालडा क्या है?" तो शायद वो कंधे उचका दे, या फिर सोचे कि ये कोई पुराना प्रॉडक्ट होगा जो अब शायद बंद हो चुका है।

तो आखिर क्या हुआ उस ब्रांड को, जिसने एक समय में भारतीय रसोईयों पर राज किया था? क्यों वो नाम जो हर घर में गूंजता था, अब इतिहास के पन्नों में सिमट गया है?

---authored: प्रीति ✍🏽 

## **शुरुआत: घी का सस्ता विकल्प**

ब्रिटिश राज के दौर में, असली देसी घी आम आदमी की पहुँच से बाहर हो चला था। घी महँगा था और हर किसी के बजट में फिट नहीं बैठता था। ऐसे में **1937 में ‘डालडा’ नाम से एक नया उत्पाद बाज़ार में उतरा**, जो दरअसल एक तरह का 'वनस्पति घी' था। इसे घी का विकल्प कहें, या उसकी नकल — लेकिन डालडा ने आते ही बाज़ार में तहलका मचा दिया।

ये सस्ता था, टिकाऊ था, और देखने में असली घी जैसा ही लगता था। यही कारण था कि जल्द ही डालडा **हर घर में घी की जगह लेने लगा**। घरों में शादियाँ हों, त्योहार हों, या रोज़ का खाना — डालडा हर जगह मौजूद था।

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## **ब्रांडिंग का कमाल**

डालडा सिर्फ एक प्रॉडक्ट नहीं था, वो एक **इमोशनल कनेक्शन** बन चुका था। टेलीविजन पर उसके विज्ञापन आते थे — जिनमें ‘माँ’ अपने बच्चों के लिए प्यार से खाना बना रही होती थी। डालडा का नाम जुड़ गया था **ममता, स्वाद और विश्वसनीयता** से।

"डालडा वाला खाना" मतलब वो खाना जो दिल से बनाया गया हो।

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## **लेकिन फिर दौर बदला…**

1990 के दशक के बाद भारत में **खुले बाज़ार की हवा** चली। विदेशी कंपनियाँ आईं, नए विकल्प आए, और सबसे बड़ी बात — लोगों की **सेहत को लेकर सोच बदलने लगी**।

वैज्ञानिकों और न्यूट्रिशनिस्ट्स ने यह बताना शुरू किया कि डालडा जैसे वनस्पति घी में **ट्रांस फैट्स** होते हैं, जो **दिल की बीमारियों, मोटापे और कोलेस्ट्रॉल** को बढ़ाते हैं। मीडिया ने भी डालडा को एक **‘खतरनाक विकल्प’** के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।

वो माँ जो कभी डालडा में पराठा सेंकती थी, अब उसके हाथ में **ऑलिव ऑयल या सनफ्लावर ऑयल** की बोतल आ चुकी थी। डालडा अब सेहत का दुश्मन समझा जाने लगा।

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## **देसी घी की वापसी**

इसी दौरान, भारत में एक **नई जागरूकता की लहर** उठी — लोग अपने *roots* की ओर लौटने लगे। देसी गाय का घी, जिसे कभी महँगा कहकर छोड़ा गया था, अब 'सुपरफूड' बन चुका था। आयुर्वेद और पारंपरिक ज्ञान की ओर लोगों का झुकाव बढ़ा, और **"देसी घी" एक स्टेटस सिंबल बन गया।**

जो डालडा कभी 'सस्ता और टिकाऊ' होने की वजह से फेमस था, वही अब **‘घटिया और अस्वस्थ विकल्प’** माना जाने लगा।

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## **बदलाव की रफ्तार में पीछे छूटा ब्रांड**

जहाँ दूसरी कंपनियाँ जैसे अमूल, पतंजलि या फॉर्च्यून समय के साथ **अपने उत्पादों और ब्रांडिंग को बदला**, वहीं डालडा शायद उस तेजी से खुद को ढाल नहीं पाया।

* उसने देसी घी के ट्रेंड में देर से प्रवेश किया।
* हेल्थ के प्रति बढ़ते जुनून को वो सही ढंग से कैश नहीं कर सका।
* युवाओं से उसका कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं रहा।

नतीजा? डालडा धीरे-धीरे **दुकानों से गायब** होने लगा। उसका नाम सिर्फ पुरानी पीढ़ी की यादों में रह गया — जैसे दादी की कहानी, या पुराने एलबम में रखा कोई धुँधला फ़ोटो।

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## **डालडा: एक सबक**

डालडा की कहानी सिर्फ एक ब्रांड की गिरावट नहीं है। यह एक **बड़ा बिज़नेस सबक** भी है — कि

* बाज़ार में टिके रहना है तो **वक्त के साथ बदलना** जरूरी है।
* ब्रांड वैल्यू सिर्फ अतीत के भरोसे नहीं चलती, बल्कि **वर्तमान की ज़रूरतों और भविष्य की सोच** के साथ चलती है।
* और सबसे ज़रूरी बात — आज का ग्राहक सिर्फ स्वाद नहीं, **सेहत, नैतिकता और जागरूकता** को भी देखता है।

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## **आख़िरी बात**

कभी हमारे घर की रसोई में जो डालडा चमकता था, वो आज केवल यादों में रह गया है।
शायद किसी पुराने बक्से में एक पीली डिब्बी पड़ी हो, जिसमें अब मसाले रखे जाते हों।
या फिर किसी बुजुर्ग की जुबान पर वो ज़िक्र आए — "अरे, डालडा वाला ज़माना था, क्या स्वाद होता था खाने का..."

लेकिन वक्त बदला है — और अब स्वाद से ज़्यादा **सचेत जीवन** को प्राथमिकता दी जाती है।
डालडा की कहानी एक **nostalgia** भी है, और एक **चेतावनी।
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