वो कहाँ समझ पाऐगा

एक बार फिर से
उसके झूठ का खेल चालू हैं
पर इस बार उसे बताऐगे नही
उसे जताऐगे भी नहीं ।
रफ्ता रफ्ता अपने  दिल से उतारेगे
महसूस अपनी आँखों से उसे कराऐगे
दिल का हाल नही बताऐगे
बिन कहे ही इस बार छोड़ जाऐगे।

वो क्या समझ पाएगा
मेरे मुबारक जज्बातो को
वो कहा समझ पाएगा मेरी
अनकही हालातो को।

उसे तो प्यार के बाद दोस्ती निभाना आता
उसे तो झूठ को सच ,सच को दबाना आता है
भरोसा भी कोई चीज होती है
वो कहा समझ पाऐगा ।

डर तो उसे खोने का हैं इस दिल को
वो शायद समझ जाए ये वहम है इस दिल को
मुहब्बत हो ही गई है इतनी उससे कि
सारे हक उसी को दिया है इस दिल ने
सताए ,आजमाये ,निभाये या तन्हा कर जाए।

प्रीति कुमारी


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