गृहणी हूं मैं

कभी झाक कर देखना
अपने घर के आंगन में
घर को घर बनाती हुईं
अपने ख्वाबों को मार कर
पति का आंगन सजाती हुईं
एक उम्मदा शख्स सबके घर में मिलेगी।


गृहणी कहो, मां कहो, बहु कहो
या कोई और नाम दो
पर सच है कि हर नाम में ही
त्याग की मूरत दिखेगी।

सवारती हैं सबको खुद को समर्पित कर
मकान को घर बनाती हैं
सह लेती हैं हर दर्द को हस कर
शांत, सुशील , मूरत बन जाती हैं।

हालात बुरे होने पर
साथ निभाती हैं
आंच किसी अपनो पर आने ना दे
त्याग की अद्भुत मूरत बन जाती हैं।

आदमियों के बस की बात नहीं ये
अपनी ख्वाइशे, खुशियां, एहसास
सब लूटा दे अपनो की खातिर
सहे दर्द और ताने, उफ्फ ना करें
समाज के तानों  के आगे।

बढ़ते समाज के आगे
कुछ नारी भी बढ़ना सीख रही हैं
तानों और दबाबो में रहकर भी
अपने को साथ लेकर
और अपनो को साथ देकर
त्याग, बलिदान की मूरत ये
हर रूप में खुद को सींच रही हैं।

प्रीति कुमारी


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