उजालों की शाम में ही

उजालों की शाम में ही
अंधकार घनघोर हुआ
मेरे घर ही क्यूं बेटी हुई
उलझन में सारे परिवार में शोर हुआ।


किसे दू, कहा फेकू....
ये सोच ...चाहु ओर था गूंज रहा
नौ माह का...... 
एक मां का खुबसूरत एहसास
पल भर में इस हरकत से था टूट रहा।

मां तो ममता परायण थी
सीने से लगाए थी कौंध रही
दर्द से जना था उस जननी ने
बेटा_बेटी का परख कहा थी बूझ रही।

दादी,काकी थी चिढ़ी हुई
कई जाल मन ही मन थी बुन रही
वो खुद ही किसी की बेटी हैं
इससे परे सोच में डूबी....
उस बच्ची को ठिकाने लगाने की थी सोच रही।

बिना बेटी बहु नहीं
बिना बहु वसुंधरा की खूबसूरती नही
इस सत्य से परे एक जननी ही.......
दूसरे भविष्य की जननी को
थी रौंद रही।

प्रयास सफल हुई उसे हटाने की
नवजात शिशु को...
कन्या के नाम पर दफनाने की
सास चली थीं, धरती मां की आंचल में
वो जीते जी दफना दी गई
बिन पाप सजा मिली अभागन सी।

हाय.... री ... विडंबना इस समाज की
ईसानियत कहा मर जाती है ऐसे इन्सान की
नारी होकर ही नारी का सम्मान नहीं करती
पुरुष कैसे नहीं समझते......
जो जननी हैं इस वसुंधरा की
उसे ही वसुधा को जीते जी कैसे सौप दिया
हाय... री.... विडंबना ये कैसा कुकर्म कर
तुमने बिना शर्म ही मुंह मोड़ लिया।

प्रीति कुमारी


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